Thursday, November 27, 2008

देह की देहरी के पार

देह की देहरी के पार
निशब्द था वो प्यार
जब
चुटकी भर धूप से तुमने
किया था माथे का श्रृंगार
रात की चादर मे तुमने
टांका था तारो से संसार
चाँद की मद्धिम सी लौ मे तुमने
जला सब कुछ पाया था सार
समय के अधपके धागे से तुमने
बुना था ये दिन चार
असह्य है तेरे स्नेह का ये भार
देह की देहरी के पार.....

3 comments:

BIMLESH said...

This is dedicated to NUTAN my wife on the occasion of our fourth marriage anniversary.

Neeraj said...

A true Gulzar style...very nice!

Ajay Ambekar said...

क्या बात है बिमलेशजी! बहुत बढिया! बिल्कुल सही और अच्छा असर है आपपर ग़ुलज़ारजी का. कम शब्दोंमे आपने सहजीवन के दो प्रमुख अंगोंको - आपसी संबंध और भौतिक वास्तव- ख्बुबसुरतीसे जोडा है. बधाई हो.