देह की देहरी के पार
निशब्द था वो प्यार
जब
चुटकी भर धूप से तुमने
किया था माथे का श्रृंगार
रात की चादर मे तुमने
टांका था तारो से संसार
चाँद की मद्धिम सी लौ मे तुमने
जला सब कुछ पाया था सार
समय के अधपके धागे से तुमने
बुना था ये दिन चार
असह्य है तेरे स्नेह का ये भार
देह की देहरी के पार.....
3 comments:
This is dedicated to NUTAN my wife on the occasion of our fourth marriage anniversary.
A true Gulzar style...very nice!
क्या बात है बिमलेशजी! बहुत बढिया! बिल्कुल सही और अच्छा असर है आपपर ग़ुलज़ारजी का. कम शब्दोंमे आपने सहजीवन के दो प्रमुख अंगोंको - आपसी संबंध और भौतिक वास्तव- ख्बुबसुरतीसे जोडा है. बधाई हो.
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